चोटी की पकड़–4
मुन्ना की जबान बंगला है।
असल में इसका नाम है मोना या मनोरमा।
बुआ इलाहाबाद की ठेठ देहाती बोलती हैं।
मुन्ना ने अपनी सरल सुबोध बंगला में रानी साहिबा से मिलने के करीने कई दफे समझाए, पर बुआ की समझ में कुछ न आया।
फिर बुआ की मान्य के मान्य के संबंध में युक्तप्रांत की बँधी धारणा थी, उसमें परिवर्तन हिंदूपन से हाथ धोना था।
मुन्ना के सश्रद्ध रानी साहिबा के उच्चारण से बुआ अपने बड़प्पन को दबाकर खामोश रह जाती थीं, सोचती थीं, धर्म के अनुसार रानी साहिबा में और मुन्ना में उनके समक्ष कौन-सा फर्क है?
जो काम उनके लिए मुन्ना करती है, वही रानी साहिबा भी पुण्य के संचय के लिए कर सकती हैं।
जो कुछ उन्होंने सीखा, वह है बंगाली ढंग से साड़ी पहनना, मशहरी लगाना, तकिए का सहारा लेना, बंगाली भाजियों को पूर्वापर विधि से खाना।
यह भी इसलिए कि उनसे कहा गया था कि उनकी बहू अर्थात् राजकुमारी बिना इसके उनसे मिलेंगी नहीं,
जब वह आएंगी तब इसी वेश में रहना होगा, उनके जल-पान के लिए ऐसी ही भाजियाँ देनी होंगी, थाली इसी तरह लगाई जाएगी; नहीं तो वह भाग जाएँगी, एक क्षण के लिए नहीं ठहर सकतीं।
दो
मुन्ना के बतलाए हुए ढंग से बुआ ने एक सफेद साड़ी पहनी।
विधवा के रजत वेश से पालकी पर बैठीं।
वहाँ के सभी कुछ उन्हें प्रभावित कर चुके थे, पालकी एक और हुई।
कहारों ने पालकी उठाई और अपनी खास बोली से कोलाहल करते हुए बढ़े।
अगल-बगल दो दासियाँ, पीछे मुन्ना। दो सिपाही आगे, दो पीछे। पुरानी अट्टालिका से नयी चार फर्लांग के फासले पर है।
पालकी नयी अट्टालिका के अंदर के उद्यान में आई।
गुलाबों की क्यारियों के बीच से गुजरती हुई खिड़की के विशाल जीने पर लगा दी गई।
सिपाही और कहार हट गए। जिस बाजू लगी, उधर की दासी ने दरवाजा खोला।
मुन्ना पानदान लिए हुए सामने आई और उतरने के लिए कहा। बुआ उतरीं।